तो इतिहास कुछ और होता


 



-डा. कृष्ण स्वरूप आनन्दी
  देश के महान नेता डा. राममनोहर लोहिया के बहुरंगी जीवन यात्रा में ऐसे कई क्रान्तिक या अप्रत्याशित  मोड़ आये, जिनसे भारतीय राजनीति की मुख्यधारा बदलते- बदलते रह गयी। अगर ये निम्न अनहोनियां  न घटती तो देश का इतिहास शायद कुछ और ही होता

डा. लोहिया और सुभाष चन्द्र बोस

1942 में गांधी ने जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत की तब कांग्रेस के सभी दिग्गज नेताओं ने उन्हें कहा कि इस समय  दूसरे महायुद्ध के दौरान हमने अंग्रेजो को शक्ति बंटाने की कोशिश की तो इतिहास हमें फासीवाद  का पक्षधार मानेगा। लेकिन गांधी नहीं माने। डा. लोहिया को गांधी का यह फैसला पसंद  आया और वे भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े। अगस्त क्रान्तिका चक्रप्रवर्तन हो चला। डा. लोहिया अंग्रेजों को चकमा  देकर गिरफ्तारी से बच निकले। अपनी समाजवादी मित्र मण्डली के साथ वे भूमिगत हो गये।  भूमिगत रहते हुए भी उन्होंने बुलेटिनों, पुस्तिकाओं, विविधा प्रचार सामग्रियों के अलावा समान्तर रेडियो कांग्रेस रेडियोका संचालन करते हुए देशवासियों  को अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए प्रेरित किया।

लेकिन जब अगस्त क्रान्ति का जन उबाल ठण्डा पड़ने लगा तब डा. लोहिया का ध्यान  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अगुआई में आजाद हिन्द फौज द्वारा छेड़े गये सशस्त्र मुक्ति संग्राम की ओर गया। उस समय भारत के पूर्वोत्तर भाग में नेताजी का विजय अभियान जारी  था। डा. लोहिया नेताजी से मिलने की योजना बना ही रहे थे कि अचानक 20 मई, 1944 को उन्हें मुम्बई में  गिरफ्रतार कर लिया गया। देश के दुर्भाग्य से अगस्त क्रान्ति के वीर सेनानी डा. लोहिया  और आजाद हिन्द फौज के सेनानायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का मिलन न हो सका।

डा. लोहिया और महात्मा गांधी

अगस्त क्रान्ति के दौरान डा. लोहिया के कौशल और साहस से महात्मा गांधी अत्यंत  प्रभावित हुए थे। उसके पहले बापू डा. लोहिया के कई विचारोत्तेजक लेख, बेबाक टिप्पणियां आदि अपने पत्र हरिजनमें प्रकाशित भी कर चुके थे।

भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का सूरज डूब रहा था। राष्ट्रीय नेताओं का यह मानना  था अंग्रेजों के जाते ही पुर्तगाली भी गोवा से स्वयं कूच कर जायेंगे इसलिए वहां शक्ति  झोंकने की जरूरत नहीं। लेकिन डा. लोहिया ने वहां जाकर आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा ही  दिया। उनका साथ महात्मा गांधी को छोड़कर और किसी बड़े नेता ने नहीं दिया। इससे भी पता  चलता है कि गांधी लोहिया का कितना सम्मान करते थे।  

स्वतंत्रता के बाद नेहरू सरकार की नीतियां गांधी के विचारों से प्रतिकूल  थीं। डा. लोहिया का समाजवाद गांधी की विचारधारा के अत्यन्त निकट था। नेहरू सरकार  की दशा-दिशा के कारण महात्मा गांधी का नेहरू से मोहभंग हो रहा था और लोहिया की तरफ  रूझान बढ़ रहा था। आजादी के बाद देश साम्प्रदायिकता के संकट में फंस गया तो शांति और सद्भाव कायम करने में डा. लोहिया ने गांधी का सहयोग किया। इस प्रकार वे बापू के बेहद  करीब आ गये थे। इतने करीब की गांधी ने जब लोहिया से कहा कि जो चीज आम आदमी के लिए  उपलब्ध नहीं उसका उपभोग तुम्हें भी नहीं करना चाहिए और सिगरेट त्याग देना चाहिए तो  लोहिया ने तुरन्त उनकी बात मान ली।

28 जनवरी, 1948 को गांधी ने लोहिया से  कहा, ”मुझे तुमसे कुछ विषयों पर विस्तार में बात करनी है। इसलिये आज तुम मेरे शयनकक्ष  में सो जाओ। सुबह तड़के हम लोग बातचीत करेंगे।लोहिया गांधी के बगल में सो गये। उन्होंने सोचा कि जब  बापू जागेंगे, तब वे जगा लेंगे और बातचीत हो जाएगी। लेकिन जब लोहिया की आंख खुली तो गांधी बिस्तर  पर नहीं थे। बाद में जब डा. लोहिया गांधी से मिले तब गांधी ने कहा, ”तुम गहरी नींद में थे।  मैंने तुम्हें जगाना ठीक नहीं समझा। खैर कोई बात नहीं। कल शाम तुम मुझसे मिलो। कल निश्चित  रूप से मैं कांग्रेस और तुम्हारी पार्टी के बारे में बात करूंगा। कल आखिरी फैसला होगा।

लोहिया 30 जनवरी, 1948 को गांधी से बातचीत करने के लिए टैक्सी से बिड़ला भवन की तरफ बढ़े ही थे  कि तभी उन्हें गांधी की शहादत की खबर मिली। एक ठोस योजना की भ्रूण हत्या हो गयी।

बापू अपनी शहादत से पहले अपने आखिरी वसीयतनामे में कांग्रेस को भंग करने की  अनिवार्यता सिद्ध कर चुके थे। उस समय उन्होंनें ऐसा स्पष्ट संकेत दिया था कि आजादी की  लड़ाई के दौरान अनेकानेक उद्देश्यों के निमित्त गठित विविध रचनात्मक कार्य संस्थाओं को एकसूत्र में पिरोकर शीघ्र ही एक नया राष्ट्रव्यापी लोक संगठन खड़ा किया जायेगा।  डा. लोहिया की उसमें विशेष भूमिका होगी। इस प्रकार बनने वाले शक्तिपुंज से बापू आजादी  की अधूरी जंग के निर्णायक बिन्दु तक पहुंचाना चाहते थे। लेकिन नियति के क्रूर चक्र  ने एक बार फिर देश को बुरी तरह छला। 

डा. लोहिया और डा. अम्बेडकर

1956 में डा. लोहिया और डा. भीमराव अम्बेडकर के बीच निकटता बढ़ने लगी थी। कांग्रेस को सत्ताच्युत करने के लिये वे  दोनों एक मंच पर आने के लिये राजी हो रहे थे। देश के सर्वांगीण विकास के लिये यह नितान्त  आवश्यक समझा गया कि सोशलिस्ट पार्टी और आल इण्डिया बैकवर्ड क्लास एसोसिएशन का आपस में  विलय हो जाए। इस प्रकार जो नवगठित पार्टी बने, डा. अम्बेडकर उसका अधयक्ष पद स्वीकार करें। दोनों पार्टियों  के बीच सिद्धान्तों, नीतियों, कार्यक्रमों और लक्ष्यों की दृष्टि से काफी हद तक समानता होने के कारण विलय के आसार नजर आने लगे थे कि तभी 6 दिसम्बर, 1956 को डा. अम्बेडकर का निधन हो गया। दुर्भाग्य ने यहां भी अपना रंग दिखा दिया।

डा. लोहिया और जयप्रकाश नारायण

डा. राम मनोहर लोहिया लोगों को आगाह करते आ रहे थे कि देश की हालत को सुधारने  में कांग्रेस नाकाम रही है। कांग्रेस शासन नये समाज की रचना में सबसे बड़ा रोड़ा है। उसका सत्ता में बने रहना देश के लिए हितकर नहीं है। इसलिए डा. लोहिया ने नारा दिया, ‘कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ

1967 के आम चुनाव में एक बड़ा  परिवर्तन हुआ। देश के 9 राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकारें गठित हो गईं। डा. लोहिया इस परिवर्तन  के प्रणेता और सूत्राधार बने। राजनीतिक बदलाव के इस दौर में डा. लोहिया को स्वतंत्रता  संग्राम के अपने पुराने सहयोगी और प्रिय सखा जयप्रकाश नारायण की सुधि हो आयी। जेपी  उस समय सर्वोदय आन्दोलन की अग्रणी हस्ती थे। सितम्बर, 1967 में डा. लोहिया पटना पहुंचे।  दोनों आत्मीय जनों ने अतिशय अंतरंगता से गहन विचार-विमर्श किया। डा. लोहिया ने जयप्रकाश  को राजनीति की मुख्यधारा में दुबारा आने का स्नेहपूर्ण आमंत्राण दिया। लोहिया के मनाने  पर जेपी राजी भी हो गये। लेकिन, इस बार कालचक्र ने डा. लोहिया को ही अपना ग्रास बना लिया और 12 अक्टूबर, 1967 को उनके निधन के समाचार  से देश उदास हो गया।

सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन  के जरिये जय प्रकाश नारायण जनगण की मुख्यधारा के निर्माण के निमित्त बने थे, लेकिन  तब डा. लोहिया नहीं थे। इस दौर में उन्हें डा. लोहिया की कमी महसूस होती रही। जून, 1974 में इलाहाबाद की विशाल जन सभा में जय प्रकाश नारायण ने भावपूर्ण  ढंग से डा. लोहिया को अपना छोटा भाई बताया था। इतना ही नहीं किसी अन्य स्थान पर उन्होंने  तो यहां तक कह डाला था कि डा. लोहिया द्वारा परिकल्पित सप्तक्रान्ति’  ही हमारी सम्पूर्ण क्रान्तिहै। उन्हें डा. लोहिया की कमी बराबर खलती रही। वे हमेशा यह महसूस करते रहे  कि अगर आज डा. लोहिया जिन्दा होते, तो सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन  की शक्ल, दशा और दिशा कुछ और ही होती। उस दौरान यह नारा काफी  चलता था, ‘दु:खी देश की एक आस, गांधी-लोहिया-जय प्रकाश।

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