कहीं ऐसा न हो कि अपनी भाषा बोलने में आपको शर्म महसूस हो
कहीं ऐसा न हो कि अपनी भाषा बोलने में आपको
शर्म महसूस हो
14 सितंबर, 1949 को भाषा सम्बन्धी प्रावधानों को संविधान सभा ने स्वीकृत दे दिया था और यह तय किया गया कि 15 वर्ष के अंदर हिंदी को उसका संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए आवश्यक प्रयास किया जाएगा लेकिन ऐसा हो नहीं सका. संविधान लागू होने के 15 वर्ष पूरे होने को आते ही कुछ प्रान्तों में भाषाई राजनीति का ऐसा उबाल आया कि हिंदी के साथ अंग्रेजी को सह-राजभाषा बना दिया गया और हिंदी का विरोध करने वाले राज्यों की सहमति की अनिवार्यता के कारण हिंदी के व्यावहारिक रूप में भारत संघ की राजभाषा बनने की संभावनाओं पर पानी फिर गया. भारत जब आजाद हुआ उस समय कई गुटों ने हिंदी राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया जिसमें प्रमुख थे द्रविदर कझगम, पेरियार, और डीएमके. हिन्दी के विरोध में इन लोगों ने तमिलनाडु और अन्य दक्षिणी राज्यों में आंदोलन चलाए. पर कुछ नेता ऐसे भी थे जो हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने के हिमायती थे. लाल बहादुर शास्त्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोरारजी देसाई जैसे नेता चाहते थे कि हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त हो पर राजनीति की बिसात पर उनकी चाह दबी रह गई. उस समय तमिलनाडु, मद्रास, केरल और अन्य जगह हिन्दी के विरुद्ध फैल रहे आंदोलन दंगों की सूरत लेने पर आमादा थे इसलिए जब पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हिन्दी को अंग्रेजी के साथ ही चलाते रहने का फैसला किया.
अंग्रेजी बनाम हिंदी
एक अनुमान के मुताबिक आज देश में अंग्रेजी समझ सकने वाले लोगों की कुल संख्या तीन प्रतिशत से भी कम है. सरकारी कार्यालयों से लेकर देश के बड़े संस्थानों में शुरू से ही अंग्रेजी को ही वरीयता दी जाती है. इस तरह से अगर देखें तो देश के 97 प्रतिशत भारतीयों के साथ अन्याय है. आज अंग्रेजी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा होने की वजह से अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी की बजाए अंग्रेजी में शिक्षा देने के इच्छुक हैं लेकिन जानकार मानते हैं कि बच्चे का असली विकास आयातित भाषा में नहीं बल्कि मातृभाषा में होता है.
-क्या करने की जरूरत --
हिंदी का जो संवैधानिक अधिकार लंबे अरसे से लंबित या स्थगित पड़ा है, उसे तुरंत बहाल किया जाए. जरूरी हो तो इसके लिए न्यायालय की भी शरण में जाया जा सकता है. यदि हिंदी को यह स्थान मिल जाएगा तो सभी भारतीय भाषाओं को इससे बल मिलेगा तथा परस्पर अनुवाद द्वारा उनके माध्यम से हिंदी भी बल प्राप्त करेगी. हिंदी को केवल सरकारी कामकाज की भाषा तक सीमित रखना उचित नहीं होगा. बल्कि व्यापक जनसंपर्क, शिक्षा, साहित्य, मीडिया, वाणिज्य, व्यवसाय, ज्ञान विज्ञान और तकनीकी की भाषा के रूप में उसके व्यापक व्यवहार द्वारा ही संभव है.
मौलिक लेखन के साथ-साथ व्यापक स्तर पर अनुवाद को अपना कर हिंदी को भूमंडलीय ज्ञान की खिड़की बनाया जा सकता है. अत: इस दिशा में भी ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है. तभी हिंदी का वह सामासिक और वैश्विक स्वरूप उभर सकेगा जो भारत ही नहीं, दुनिया भर के किसी भी भाषाभाषी को बरबस अपनी ओर खींच लेगा.
हिंदी भाषा ने अपनी जनशक्ति के कारण लंबी चर्चा के बाद स्वतंत्र भारत में राजभाषा का स्थान प्राप्त किया. इसमें संदेह नहीं कि भारतीय संविधान द्वारा प्रस्तुत भाषा-नीति ‘संघीय, लोकतांत्रिक, संतुलित, समावेशी और भाषा-निरपेक्ष’ है जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के विकास की संभावनाओं का पूरा खयाल रखा गया है लेकिन आज के संदर्भ में देखें तो भारतीय भाषाओं पर खासकर हिंदी को विदेशी भाषा अंग्रेजी ने पूरी तरह से हाइजेक कर लिया है. यहां कहने का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी भाषा को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए लेकिन ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए कि अपनी भाषा बोलने में हमे शर्म महसूस हो. वैसे कुछ हद तक यह भाव हिंदी बोलने वाले लोग महसूस कर भी रहे हैं.
आज जब भारतवर्ष धर्म, क्षेत्र, भाषा, जाति और नस्ल के नाम पर टुकड़े-टुकड़े होने की ओर अग्रसर है; यह याद रखना जरूरी है कि मूलतः हिंदी शब्द धर्म, भाषा, जाति और नस्ल से परे समग्र भारतीयता का वाचक है जिस पर हर भारतीय को गर्व महसूस करना चाहिए.
सामान्य सी बात है जब कोई आम व्यक्ति कानून
के पचड़े में पड़ता है और उसका मामला कोर्ट में जाता है. तब वह उम्मीद करता है कि
उसका वकील उसके दर्द को अदालत में उसकी ही भाषा (हिंदी) में बयां करे. लेकिन दुर्भाग्य
की बात है कि आज स्थानीय कोर्ट,
उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में मामले की सुनवाई से
लेकर फैसले तक में अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है. केवल राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार के उच्च न्यायालयों में ही हिंदी में
सुनवाई होती है.
हिंदी दिवस का इतिहास 14 सितंबर, 1949 को भाषा सम्बन्धी प्रावधानों को संविधान सभा ने स्वीकृत दे दिया था और यह तय किया गया कि 15 वर्ष के अंदर हिंदी को उसका संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए आवश्यक प्रयास किया जाएगा लेकिन ऐसा हो नहीं सका. संविधान लागू होने के 15 वर्ष पूरे होने को आते ही कुछ प्रान्तों में भाषाई राजनीति का ऐसा उबाल आया कि हिंदी के साथ अंग्रेजी को सह-राजभाषा बना दिया गया और हिंदी का विरोध करने वाले राज्यों की सहमति की अनिवार्यता के कारण हिंदी के व्यावहारिक रूप में भारत संघ की राजभाषा बनने की संभावनाओं पर पानी फिर गया. भारत जब आजाद हुआ उस समय कई गुटों ने हिंदी राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया जिसमें प्रमुख थे द्रविदर कझगम, पेरियार, और डीएमके. हिन्दी के विरोध में इन लोगों ने तमिलनाडु और अन्य दक्षिणी राज्यों में आंदोलन चलाए. पर कुछ नेता ऐसे भी थे जो हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने के हिमायती थे. लाल बहादुर शास्त्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोरारजी देसाई जैसे नेता चाहते थे कि हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त हो पर राजनीति की बिसात पर उनकी चाह दबी रह गई. उस समय तमिलनाडु, मद्रास, केरल और अन्य जगह हिन्दी के विरुद्ध फैल रहे आंदोलन दंगों की सूरत लेने पर आमादा थे इसलिए जब पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हिन्दी को अंग्रेजी के साथ ही चलाते रहने का फैसला किया.
अंग्रेजी बनाम हिंदी
एक अनुमान के मुताबिक आज देश में अंग्रेजी समझ सकने वाले लोगों की कुल संख्या तीन प्रतिशत से भी कम है. सरकारी कार्यालयों से लेकर देश के बड़े संस्थानों में शुरू से ही अंग्रेजी को ही वरीयता दी जाती है. इस तरह से अगर देखें तो देश के 97 प्रतिशत भारतीयों के साथ अन्याय है. आज अंग्रेजी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा होने की वजह से अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी की बजाए अंग्रेजी में शिक्षा देने के इच्छुक हैं लेकिन जानकार मानते हैं कि बच्चे का असली विकास आयातित भाषा में नहीं बल्कि मातृभाषा में होता है.
-क्या करने की जरूरत --
हिंदी का जो संवैधानिक अधिकार लंबे अरसे से लंबित या स्थगित पड़ा है, उसे तुरंत बहाल किया जाए. जरूरी हो तो इसके लिए न्यायालय की भी शरण में जाया जा सकता है. यदि हिंदी को यह स्थान मिल जाएगा तो सभी भारतीय भाषाओं को इससे बल मिलेगा तथा परस्पर अनुवाद द्वारा उनके माध्यम से हिंदी भी बल प्राप्त करेगी. हिंदी को केवल सरकारी कामकाज की भाषा तक सीमित रखना उचित नहीं होगा. बल्कि व्यापक जनसंपर्क, शिक्षा, साहित्य, मीडिया, वाणिज्य, व्यवसाय, ज्ञान विज्ञान और तकनीकी की भाषा के रूप में उसके व्यापक व्यवहार द्वारा ही संभव है.
मौलिक लेखन के साथ-साथ व्यापक स्तर पर अनुवाद को अपना कर हिंदी को भूमंडलीय ज्ञान की खिड़की बनाया जा सकता है. अत: इस दिशा में भी ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है. तभी हिंदी का वह सामासिक और वैश्विक स्वरूप उभर सकेगा जो भारत ही नहीं, दुनिया भर के किसी भी भाषाभाषी को बरबस अपनी ओर खींच लेगा.
हिंदी भाषा ने अपनी जनशक्ति के कारण लंबी चर्चा के बाद स्वतंत्र भारत में राजभाषा का स्थान प्राप्त किया. इसमें संदेह नहीं कि भारतीय संविधान द्वारा प्रस्तुत भाषा-नीति ‘संघीय, लोकतांत्रिक, संतुलित, समावेशी और भाषा-निरपेक्ष’ है जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के विकास की संभावनाओं का पूरा खयाल रखा गया है लेकिन आज के संदर्भ में देखें तो भारतीय भाषाओं पर खासकर हिंदी को विदेशी भाषा अंग्रेजी ने पूरी तरह से हाइजेक कर लिया है. यहां कहने का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी भाषा को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए लेकिन ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए कि अपनी भाषा बोलने में हमे शर्म महसूस हो. वैसे कुछ हद तक यह भाव हिंदी बोलने वाले लोग महसूस कर भी रहे हैं.
आज जब भारतवर्ष धर्म, क्षेत्र, भाषा, जाति और नस्ल के नाम पर टुकड़े-टुकड़े होने की ओर अग्रसर है; यह याद रखना जरूरी है कि मूलतः हिंदी शब्द धर्म, भाषा, जाति और नस्ल से परे समग्र भारतीयता का वाचक है जिस पर हर भारतीय को गर्व महसूस करना चाहिए.
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